Meaning of Bhaktamar Stotra (भक्तामर स्तोत्र का अर्थ )


Bhaktamar Stotra का अर्थ 

(स्त्रोत्र संख्या 1 से 16 तक)


भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-
मुघोतकं दलित-पाप-तमो-वितानम्।
सम्यक्-प्रणम्य जिन-पाद-युगं  युगादा-
वालम्बनं भव-जले पततां   जनानाम् ||1||


 अर्थ: झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा)| 

 

यः संस्तुतः सकल-वाड्मय-तत्व-बोधा-

दुद् भूत-बुद्धि-पटुभिः सुर-लोक-नाथेः |

स्तोत्रैर्जगत् त्रितय-चित-हरैरुदारेः

स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रनम् ||2||


अर्थसम्पूर्णश्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि की कुशलता से इन्द्रों के द्वारा तीन लोक के मन को हरने वाले, गंभीर स्तोत्रों के द्वारा जिनकी स्तुति की गई है उन आदिनाथ जिनेन्द्र की निश्चय ही मैं (मानतुंग) भी स्तुति करुँगा| 


 बुद्धया विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ

स्तोतुं समुधत-मतिर्विगत-त्रपोऽहम् |

बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दु-विम्ब-

मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहितुम् ||3||


अर्थ: देवों के द्वारा पूजित हैं सिंहासन जिनका, ऐसे हे जिनेन्द्र मैं बुद्धि रहित होते हुए भी निर्लज्ज होकर स्तुति करने के लिये तत्पर हुआ हूँ क्योंकि जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक को छोड़कर दूसरा कौन मनुष्य सहसा पकड़ने की इच्छा करेगा? अर्थात् कोई नहीं|


वक्तुं गुणान्गुण-समुद्र शशाड्क-कान्तान् 

कस्ते क्षमः सुर-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्धया|

कल्पान्त-काल-पवनोद्ध-नक्र-चक्रं

को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ||4|| 


अर्थ: हे गुणों के भंडार! आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर गुणों को कहने लिये ब्रहस्पति के सद्रश भी कौन पुरुष समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं| अथवा प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह जिसमें ऐसे समुद्र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं|


सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश

कतुं स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्तः|

प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं

नाभ्येति किं निज-शिशोः परिपालनार्थम् ||5||


 अर्थ: हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ, भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ| हरिणि, अपनी शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं|


अल्प-श्रुतं श्रुतंवतां परिहास-धाम

त्वद् भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् |

यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति

तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैक-हेतुः||6||


अर्थ: विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझ अल्पज्ञानी को आपकी भक्ति ही बोलने को विवश करती हैं| बसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द करती है उसमें निश्चय से आम्र कलिका ही एक मात्र कारण हैं|

 


त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति-सन्निबद्धं

पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् |

आक्रान्त-लोकमति-नीलमशेषमाशु

सूर्याशु-भिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ||7||


अर्थ: आपकी स्तुति से, प्राणियों के, अनेक जन्मों में बाँधे गये पाप कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं जैसे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त रात्री का अंधकार सूर्य की किरणों से क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाता है|


 मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद-

मारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात् |

चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु

मुक्ता-फलधुतिमुपैति ननूद-बिन्दुः ||8|| 


 अर्थ: हे स्वामिन्! ऐसा मानकर मुझ मन्दबुद्धि के द्वारा भी आपका यह स्तवन प्रारम्भ किया जाता है, जो आपके प्रभाव से सज्जनों के चित्त को हरेगा| निश्चय से पानी की बूँद कमलिनी के पत्तों पर मोती के समान शोभा को प्राप्त करती हैं|  


आस्तां तव स्तवनमस्त-समस्त-दोषं
त्वत्सड्कतथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति|
दूरे सहस्र किरणः कुरुते प्रभैव
पध्माकरेषु जलजानि विकासभाज्जि||9||


अर्थ: सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका स्तवन तो दूर, आपकी पवित्र कथा भी प्राणियों के पापों का नाश कर देती है| जैसे, सूर्य तो दूर, उसकी प्रभा ही सरोवर में कमलों को विकसित कर देती है|


 नात्यद् भुतं भुवन-भूषण भूत-नाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः|
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति||10||


अर्थ: हे जगत् के भूषण! हे प्राणियों के नाथ! सत्यगुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले पुरुष पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है| क्योंकि उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो इस लोक में अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता |


द्रष्ट् वा भवन्तमनिमेष-विलोकनीयं
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः|
पीत्वा पयः शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धोः
क्षारं जलं जल-निधे रसितुं कः इच्छेत् ||11||


 अर्थ: हे अभिमेष दर्शनीय प्रभो! आपके दर्शन के पश्चात् मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते| चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीरसमुद्र के जल को पीकर कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा? अर्थात् कोई नहीं |


यैः शान्त-राग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्व्
निर्मापितस्त्रिभुवनैक-ललाम-भूत|
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां
                    यत्ते समानमपरं न हि रुपमस्ति|12|                    


अर्थ: हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण जिनेन्द्रदेव! जिन रागरहित सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई वे परमाणु पृथ्वी पर निश्चय से उतने ही थे क्योंकि आपके समान दूसरा रूप नहीं है |


वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि
निःशेष-निर्जित-जगत्त्रितयोपमानम्|
बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य
यद्वासरे भवति पाण्डु-पलाशकल्पम्|13|


अर्थ:  हे प्रभो! सम्पूर्ण रुप से तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता, देव मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका मुख? और कलंक से मलिन, चन्द्रमा का वह मण्डल कहां? जो दिन में पलाश (ढाक) के पत्ते के समान फीका पड़ जाता |


सम्पूर्ण-मण्डल-शशांक-कला-कलाप-
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लगंघयन्ति|
ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर-नाथमेकं
कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम्|14|


अर्थ: पूर्ण चन्द्र की कलाओं के समान उज्ज्वल आपके गुण, तीनों लोको में व्याप्त हैं क्योंकि जो अद्वितीय त्रिजगत् के भी नाथ के आश्रित हैं उन्हें इच्छानुसार घुमते हुए कौन रोक सकता हैं? कोई नहीं |

 

चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशागंगनाभि-
र्नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम्|
कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन
किं मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित्|15|


अर्थ: यदि आपका मन देवागंनाओं के द्वारा किंचित् भी विक्रति को प्राप्त नहीं कराया जा सका, तो इस विषय में आश्चर्य ही क्या है? पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल की पवन के द्वारा क्या कभी मेरु का शिखर हिल सका है? नहीं |


निर्धूम-वर्तिरपवर्जित-तैल-पूरः
क्रत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी-करोषि|
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः|16|

अर्थ: हे स्वामिन्! आप धूम तथा बाती से रहित, तेल के प्रवाह के बिना भी इस सम्पूर्ण लोक को प्रकट करने वाले अपूर्व जगत् प्रकाशक दीपक हैं जिसे पर्वतों को हिला देने वाली वायु भी कभी बुझा नहीं सकती | 




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